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"इस्लाम और सनातन के संघर्ष में दोनों की पराजय अपरिहार्य है"

धीरज शर्मा, पटौदी
आज हमें सोचने पर मजबूर करती है। एक तरफ़ जानवरों की बलि को धर्म की आस्था से जोड़ा जाता है, तो दूसरी ओर पटाखों के शोर और धुएं में त्योहार की खुशी तलाशी जाती है। नतीजा? बेजुबान जानवरों का खून और प्रदूषित आसमान।यह इस्लाम और सनातन की लड़ाई, जिसमें दोनों की हार निश्चित है,
ईद पर लोग क़ुर्बानी करते हैं, "अल्लाह की रज़ा" का हवाला देकर सड़कों पर खून बहाते हैं, जबकि दिवाली पर पटाखों से वातावरण को धुएं और शोर में बदल दिया जाता है। कोई इसे धार्मिक परंपरा कहता है, तो कोई आस्था। लेकिन इन सबके बीच कहीं न कहीं हम इंसानियत और प्रकृति को भूलते जा रहे हैं।

यह लड़ाई धर्म की नहीं, बल्कि इंसानियत की हार है। एक धर्म जानवरों के प्रति संवेदनहीन है तो दूसरा पर्यावरण के प्रति। दोनों अपने-अपने परंपराओं की दुहाई देकर प्रकृति और समाज को क्षति पहुंचा रहे हैं। सवाल यह है कि क्या धर्म का मतलब वाकई प्रकृति और निरीह प्राणियों की उपेक्षा करना है?

असल मुद्दा यह नहीं है कि कौन सही है और कौन गलत। मुद्दा यह है कि क्या हम अपनी आस्थाओं को इंसानियत और पर्यावरण के प्रति संवेदनशील बना सकते हैं? क्या धर्म का उद्देश्य हमें बेहतर इंसान बनाना नहीं होना चाहिए?

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